आध्यात्मिक चिंतक अनुराज जी वृंदावन के अपने आश्रम में हर महिने के आखिरी सप्ताह में एवं बाकी दिनों में दिल्ली में मिलते हैं। अपनी किसी भी समस्या के परामर्श एवं समाधान के लिए आप निःसंकोच सम्पर्क कर सकते हैं। हमारा वृंदावन आश्रम का पता है:- चेतना द्वार, प्लाट नं.-3, सुनरख रोड, नियर छः शिखर मन्दिर, प्रेम मन्दिर के पीछे, वृंदावन, उ.प्र.। मो. नं. +91-9911326667, +91-9911327666 हमारा दिल्ली का पता है - चेतना द्वार, ए-16, मानसरोवर पार्क, जी.टी. रोड, शाहदरा, दिल्ली-110032। मो. नं. +91-9911326667, +91-9911327666

Spiritual Thinking

Teerth yatra kya hai /  तीर्थ यात्रा क्या है ?

मैंने सुना है और पढ़ा है, भगवान महावीर कभी तीर्थ यात्रा पर नहीं गए। बुद्ध कभी तीर्थ यात्रा पर नहीं गए। राम भी कभी तीर्थ यात्रा पर नहीं गए। कृश्ण भी कभी तीर्थ यात्रा पर नहीं गए।

लेकिन फिर भी ये सभी अपने आप में तीर्थ हो गए। आपने कभी ऐसा विचार नही किया होगा। ये लोग कभी किसी तीर्थ यात्रा पर नहीं निकले, फिर भी तीर्थ हो गए। और हममें से ज्यादातर लोग तीर्थ यात्रा करते हैं, और कभी तीर्थ नहीं हो पाते। ऐसा क्यों है?

बहुत विचारणीय बात है ये। हम लोग तीर्थ यात्रा पर निकलते हैं, और तीर्थ नहीं हो पाते। और जो तीर्थ यात्रा पर नहीं निकलते, वो तीर्थ हो गए। बहुत विरोधाभास नजर आता है दोनो बातों में। होना उल्टा चाहिए था। जिन्होंने तीर्थ नहीं किया, वो तीर्थकंर हो गए और जो तीर्थ कर रहे है वो अतीर्थी हो गए।

सबसे पहले हमें तीर्थ को समझना होगा। हममें से ज्यादातर लोग तीर्थ का अर्थ धार्मिक स्थानों की यात्रा करना समझते हैं। इसी को हम तीर्थ यात्रा कहते हैं। हमारे मन-मस्तिश्क में पिछले सैकड़ों सालांे में ये बात बैठा दी गई है कि जब तक हम तीर्थ यात्रा नहीं करेंगे, हमे पुण्य का फल नही मिलेगा।

पहली बात तो मै यह बता दूं, कि जब पुण्य हमने कर ही दिया है, तो फिर उसमे फल की चाह कैसी? पुण्य तो अपने आप में ही फल है। फिर फल की चाह कैसी? और अगर आपने किसी चाह मे कुछ किया है, तो फिर पुण्य कैसा? आपने फिर पुण्य किया ही नहीं। आपने तो सौदा किया। व्यापार किया। प्रतिउत्तर में कुछ चाहा। एक बात आप समझ लें, जब भी आपने बदले में कुछ चाहा, वो सौदा हो गया। वो व्यापार हो गया। सौदे में हमेषा लौटने की प्रतीक्षा बनी रहती है। व्यापार में हमेषा वापसी का इंतजार रहता है। लेकिन हममें से ज्यादातर लोग पुण्य करते ही इसलिए हैं, कि उसका फल मिले। कभी फल का भी फल मिला है? पुण्य ही अपने आप में फल है। फिर उसका फल कैसा? इसका मतलब ये हुआ, कि जब-जब आपने पुण्य किया, वो पुण्य नहीं था। वो मात्र आपका भ्रम था। केवल पुण्य का दिखावा था। क्योंकि आपको अपने पुण्य पर सन्देह था।

इसलिए आपने फल चाहा। अगर आप अपने पुण्य के प्रति आष्वस्त होते, तो फल की आकांक्षा नही करते।

वास्तव में तीर्थ षब्द का अर्थ जो हम सदियों से ग्रहण करते आ रहे हैं, उसी ने ये सब गड़बड़ पैदा की है। भ्रम पैदा किया है। तीर्थ का अर्थ हम धार्मिक स्थानों की यात्रा करने से समझते हैं। जबकि हम केवल यात्रा करते हैं। धार्मिक स् न तो केवल बहाना मात्रा बन जाते हैं। धार्मिक स्थानों को जोड़कर हमने उसे तीर्थ यात्रा का नाम दे दिया।

वास्तव में तीर्थ षब्द का अर्थ है- त्री-रथ। त्री-रथ का अर्थ है- तीन रथ। और ये तीनो रथ प्रतीक हैं- काम, क्रोध और मोह के। अनन्त काल से इन्सान इन काम, क्रोध और मोह रूपी तीन रथों पर यात्रा करता आ रहा है। बार-बार इंसान इन तीन रथों पर सवार होकर यात्रा करता है और फिर लौट आता है। फिर यात्रा करता है फिर लौट आता है। इस प्रकार काम, क्रोध और मोह के इन तीन रथों पर उसकी यात्रा बेरूके चलती रहती है। वो अपनी इन्हीं तीन रथों की यात्रा को अपनी तीर्थ यात्रा का भ्रम पालकर सवारी किए जा रहा है। और जब तक वह इस तीर्थ यात्रा के सही मायनों को नहीं समझ लेगा, तब तक वह इन तीन रथों पर सवारी करता ही रहेगा।

राम हों, कृश्ण हों, बुद्ध हों, महावीर हों, या अन्य कोई, कभी किसी ने तीर्थ यात्रा नही की। हां, यात्राएं जरूर की हैं, लेकिन तीर्थ यात्राएं नहीं कीं। तीर्थ यात्राएं इनसें हो भी नहीं सकती थीं। क्योंकि ये कभी काम, क्रोध और मोह के रथों पर सवार ही नहीं हुए। इन्होंने काम, क्रोध, मोह को समझ लिया था। इन्होंने काम, क्रोध, मोह पर विजय पा ली थी। मैं ये नहीं कह रहा हूं, कि इन्होंने काम, क्रोध, मोह को त्याग दिया था। छोड़ दिया था। नहीं बिल्कुल भी मैं ये नही कह रहा हूं। क्योंकि काम, क्रोध, मोह हर जीव की मानसिक अवस्थाएं हैं। जीव के जन्म के साथ-साथ काम, क्रोध, मोह का भी जन्म होता है। और जो षरीर के जन्म के साथ-साथ षरीर में जन्मता है, उसकी मृत्यु भी षरीर की मृत्यु के साथ ही होती है। इसलिए उन्होंने कभी तीर्थ यात्राएं नहीं कीं। हां, यात्राएं जरूर कीं। इनकी यात्राएं, हमारी आपकी यात्राओं से बिल्कुल अलग तरह की हैं। इन्होंने यात्राएं की हैं अपने भीतर। ये अपने भीतर यात्राओं से गुजरे हंै। इन्होंने यात्राएं की हैं एकांत की। इन्होंने यात्राएं की हैं सब-कुछ छोड़ देने की। इन्होंने यात्राएं की हैं षून्य से विराट हो जाने की। इन्होंने यात्राएं की है बूंद से सागर बन जाने की। इन्होंने यात्राएं की हैं प्रकृति के साथ एक रूप हो जाने की। इन्होंने यात्राएं की हैं- सोए हुए मानवों के बीच की। इन्होंने जागते हुए यात्राएं की हैं। हम यात्राएं करते हंै सोए हुए। जो भी इंसान सोए हुए यात्रा करेगा, वो तीर्थ यात्रा ही करेगा। और जो इन्सान जागते हुए यात्रा करेगा वो केवल यात्रा ही करेगा। जागे हुए यात्रा करने में संमावनाएं हंै मंजिल मिल जाने की। मंजिल तक पंहुच पाने की। सोए हुए यात्रा करने में तो वो संभावना भी नहीं है।

बड़ी मजे की बात है। हम सब तीर्थ यात्राएं करते हैं केवल अपने लिए। इसलिए अपने मे ही सिमट कर रह जाते हैं। जब महावीर, बुद्ध, राम, कृश्ण, गुरू नानक जैसे लोग यात्राएं करते हैं, तो वे दूसरांे के लिए करते हैं। इसलिए उनकी यात्रा का फैलाव बढ़ता चला जाता है। जहां - जहां वे कदम रखते हैं, वहां - वहां वे स्थापित होते जाते हैं और उन्ही स्थानांे पर बारम्बार हमारा सिर झुकना शुरू हो जाता है।

क्योंकि इन्होंने सब कुछ छोड़ा है। छोड़ना षीश झुकवाता है। और पकड़ने से षीश झुकता है। इस अन्तर को अच्छी तरह समझ लंे आप। जब आप सब कुछ छोड़ते हैं, तो दुनिया आपके कदमों में होती है। और जब आप सब-कुछ पकड़ते हैं, तब आप सब कुछ छोड़े हुए के कदमों में होते हैं। एक बहुत सजीव मिसाल दूं। महाभारत काल में देवव्रत यानि भीश्म ने सब कुछ छोड़ा। तो भी पूरा कुरू साम्राज्य उनके कदमों में बार-बार लोटता रहा। और दूसरी तरफ सत्यवती ने सब कुछ पकड़ा तो भी सब कुछ उसके हाथ से सरकता रहा। क्योंकि पकड़ने में स्वार्थ होता है और छोड़ने में परमार्थ होता है।

छोड़ना हमें कबूल नहीं। पकड़ने में हमे सुख की अनुभूति होती है। और वो पकड़ने का सुख ही हमारे दुःख का कारण बनता चला जाता है। जिसे हम सुख समझते हैं, वास्तव में वो सुख है ही नहीं। वो तो केवल सुविधाएं हैं। और सुविधाएं केवल दूसरों को दुविधाओं में डालकर ही हासिल हो सकती हैं। वहां सुख की कोई भूमिका नहीं है। कोई रोल नहीं है सुख का। केवल सुविधाएं और दुविधाएं आपस में टकरा रही हैं। अगर सुख चाहिए, तो सुविधाओं का मोह छोड़ना पड़ेगा। यदि सुविधाएं छूट र्गइं, मान लेना, दुविधाएं भी नही रहेंगी। और दुविधा नहीं होगी, तभी सुख का प्रवेष हो सकेगा।

विवेकानन्द के गुरू रामकृश्ण परमहंस के जीवन की एक घटना है। एक बार ओघड़ बाबा तोतापुरी परमहंस कलकत्ता के दक्षिणेष्वर मन्दिर पधारे। यही मंदिर रामकृश्ण परमहंस के रहने का स्थायी निवास था। तोतापुरी ने रामकृश्ण को देखा। उनके व्यक्तित्व से प्रभावित हुए। पूछा- क्या तुम वेदांत साधना करना चाहोगे? इस पर रामकृश्ण ने स्वीकृति दे दी। तोतापुरी ने जैसे-जैसे कहा, रामकृश्ण करते चले गए। अब तोतापुरी ने उन्हें समाधि लगाने को कहा। तोतापुरी ने सोचा, कुछ घंटों की समाधि में प्रवेष करने के बाद रामकृश्ण बाहर आ जाएंगे।

लेकिन पूरे तीन दिन रामकृश्ण समाधि में ही रहे। तोतापुरी ने तीन दिन बाद जब रामकृश्ण की समाधि ‘ओम’ के स्वर के साथ खंडित की, तब कहीं जाकर रामकृश्ण समाधि से बाहर आए। तोतापुरी, रामकृश्ण की एकाग्रता देखकर गद-गद हो गए। वे अपने चालीस साल के अनुभव में भी ऐसी घोर समाधि नहीं लगा पाए थे जिसे रामकृश्ण ने केवल तीन दिन में ही साध लिया था। इस प्रकार जो तोतापुरी केवल कुछ घंटों के लिए रामकृश्ण से मिलने आए थे, वे वहां पूरे 11 महिनें तक रहे। वही स्थान तोतापुरी का तीर्थ हो गया।

आप यात्राओं के नाम पर तीर्थ यात्राओं का भौंडा प्रदर्षन न करें। जिन महात्माओं अथवा देवताओं के नाम पर तीर्थ यात्रा करते है, उन्हें जानने, समझने और अनुभव में उतारने के लिए यात्राएं करें, समझे आप। जिनके दर्षनों के लिए आप लम्बी-लम्बी, दुर्गम यात्राओं पर जा रहे हैं, उन्होनें किस प्रकार अपना जीवन गुज़ारा होगा। कैसे-कैसे उतार-चढ़ाव अपने जीवन में देखे होंगे। कैसे-कैसे कभी आषा, कभी निराषा से गुज़रे होंगे। क्या-क्या खोया होगा अपने जीवन में। कैसे- कैसे दर्द, तकलीफें झेली होंगी उन्होंने अपने जीवन में। कौन-कौन सी विपत्तियां उनके सामने आई होंगी।

क्या कभी आपने उन महात्माओं या देवताओं के जीवन को इस दृश्टि से भी देखा है? नहीं। वो दृश्टि आपके पास है कहां। केवल एक दृश्टि है, और वो है - तीर्थ यात्रा की दृश्टि। तीर्थ यात्रा कर लेंगे, तो सारे पाप धुल जाएंगे। इस तरह की यात्राओं से कभी भी आपके पाप धुलने वाले नहीं हैं। चढ़ जाओ चाहे ऊंचे-ऊंचे पहाड़ों पर। चलते जाओं चाहे लम्बी-लम्बी सड़कों पर। पर पाप नहीं धुलने वाले। पाप तभी धुलेंगे जब आप अपने जीवन में काम, क्रोध, मोह रूपी तीन रथों की यात्रा करना बंद कर देंगे और अपने जीवन को दूसरों की भलाई में लगाएंगे। दूसरों के दुखों को हरने का प्रयास करेंगे। तब आप भी अन्य यात्रियों के लिए तीर्थ बन जाएंगे। जैसे मदर टेरेसा जीता- जागता तीर्थ बन गईं।

Bhagwan kon hai /  भगवान कौन है ?

आप भी भगवान हो सकते हैं, मगर कैसे? अगर आप पत्थर की मूर्ति को भगवान समझकर पूजते हैं, तो आप बहुत बड़े भ्रम में हैं। क्योंकि अगर आप पत्थर की मूर्ति को भगवान समझकर पूजते हैं, तो आप बहुत बड़े भ्रम में हैं। इसका मतलब है - भगवान को आप समझे ही नहीं। भगवान को आपने जाना ही नहीं। भगवान को आपने पहचाना ही नहीं। भगवान को आपने जिया ही नहीं।

जब भी आप किसी के आगे झुकते हैं, तो भय के कारण झुकते हैं। चाहे वो भगवान की मूर्ति हो, या जीता - जागता इंसान। ये पक्की बात है कि आपके झुकने में भय शामिल होता है। आपके झुकने में श्रद्धा शामिल नहीं होती। आपके झुकने में सम्मान शामिल नहीं होता। केवल भय शामिल होता है। क्योंकि जैसे ही शरीर झुकता है, भीतर में उसकी मांग चालू हो जाती है। बड़ी अदभुत बात है। जब वृक्ष झुकता है, तो कुछ न कुछ देता है। और जब इंसान झुकता है तो कुछ न कुछ लेता है।

जब भीतर भय होगा, तो मांग होगी ही। क्योंकि भय सबसे पहले सुरक्षा मांगता है। प्रत्यक्ष तौर पर लोग झुकने का मतलब देना मानते हैं। जबकि ऐसा होता नहीं। असल में भीतर का भाव देने का नहीं, लेने का ही होता है। क्योंकि झुकते ही मन में दूसरे को कृतार्थ करने का भाव पनपने लगता है। बजाय स्वयं के कृतार्थ होने का भाव पनपने के।

जब आप भगवान को समझ लेते हैं, जब जी लेते हैं, जब जान लेते हैं, पहचान लेते हैं, तब आपकी भय से मुक्ति हो जाती है। तब आपके झुकने की आवश्यकता नही रहती। तब झुकना बाध्यता नहीं हो जाता। तब झुकना मज़बूरी नही हो जाता। तब झुकना वसन्त ऋतु का होना हो जाता है।

हम सदियों से भगवान की इस पत्थर की प्रतिमा के सामने झुकते आ रहे हैं। और बड़े मज़े की बात है, कि झुकते तो हम दिखाई देते हैं, लेकिन भीतर ही भीतर हम भगवान को झुकाने का प्रपंच रच रहे होते हैं। भीतर ही भीतर भगवान को झुकाने के लिए अपने प्रलोभनों से, अपनी स्वार्थपूर्ण भावना से उसे लुभाने का प्रयास कर रहे होते हैं। अन्दर ही अन्दर हम उस भगवान को अपना सिक्योरटी गार्ड बनाने का प्रयास कर रहे होते हैं। अपना बाडी गार्ड बनाने का प्रयास कर रहे होते हैं। और जब मन्दिर से लौटते हैं तो बहुत बल अपने भीतर महसूस कर रहे होते हैं। मानों सरकार र्ने च्सने श्रेणी की सुरक्षा प्रदान कर दी हो। मज़े की बात है कि करोड़ों लोग भगवान को इसी तरह पूजते हैं। इसी भाव से उसके आगे झुकते हैं। प्रदर्षित करते हैं, हम कुछ नहीं, तू ही है सब कुछ। और जब तू ही सब कुछ है, तो बन जा मेरा बाडी गार्ड! सिक्योरटी गार्ड! बस इतना ही हमने भगवान को समझा है। भगवान को जाना है! जिया है।

सदा ही अपनी नज़र से हमने भगवान को देखा है। हम जब भी केवल अपनी नज़र से ही दूसरे को देखते हैं तो हमें वही दिखाई देता है, जो हम देखना चाहते हैं। बाकी हमें कुछ दिखाई नहीं देता। ये कोई बहुत बड़ी बात नहीं हैं। साधारण सा मनोविज्ञान है।

अर्जुन ने भी महाभारत काल में, द्रोपदी को वरने के लिए जब मछली की आंख पर अपनी दृष्टि गढ़ाई थी, तब केवल उसे मछली की आंख ही नज़र आयी थी। यहां पर एक बहुत गौर करने लायक बात है। अर्जुन ने मछली की आंख पर दृष्टि गढ़ाई थी, आंख नहीं। दृष्टि और आंख में बहुत फर्क होता है। दृष्टि भीतर से प्रकट होती है, जबकि आंख षरीर के बाहर का हिस्सा है। इसलिए जब भी आप किसी भी स्थिति में दृष्टि से काम लेते हैं, तो जीत निष्चित हो जाती है। क्योंकि दृष्टि में एकाग्रता होती है। जबकि आंख चंचल होती है। चलायमान होती है। उसमें एकाग्रता नहीं होती। इसलिए मछली की आंख पर अर्जुन की दृष्टि गढ़ी थी, आंख नहीं। आंख गढ़ी होती तो द्रोपदी कभी अर्जुन की नहीं हो सकती थी। इसलिए जब दृष्टि गढ़ी हो तो कुछ भी पराया नहीं रह जाता। और जब आंख गढ़ी हो तो कुछ भी अपना नहीं रह जाता।

अकसर लोग पूछते हैं- भगवान क्या है? परमात्मा क्या है? सवाल ही गलत होगा तो जवाव सही कहां से मिलेगा। ये तो वही बात हो गई, जैसे कोई पूछे कि माता क्या है, पिता क्या है।

अरे भाई, सही प्रश्न पूछा जाएगा, तब तो सही जवाब मिलेगा ना। आप पूछ सकते हैं- भगवान कौन है? या भगवान किसे कहते हैं? तब तो बात समझ में आती है। आप पूछते हैं- पिता कौन है? माता कौन है? तब तो प्रश्न सही लगता है। भाई कौन है? मित्र कौन है? तब तो सब सही है। अगर आप पूछेंगे कि मित्र क्या है? भाई क्या है? तब हम प्रश्न की परिभाषा बदल रहे हैं। सही प्रश्न नहीं कर रहे हैं। पूछना कुछ चाहते हैं, पूछ कुछ रहे हैं।

सदियों से ऐसा ही चलता आ रहा है। सही पूछ ही नही रहे हैं। इसलिए सही मिल नहीं पा रहा है। और जो मिलता है, वो केवल भटकाव की ओर ले जाता है। इसीलिए ज्यादातर लोगों को अनुयायी बनना पड़ता है। फोलोवर बनना पड़ता है। दुनिया के ज़्यादातर लोग अनुयायी ही हैं। उन्हे अनुयायी बनना ही पड़ेगा। क्योंकि उनका प्रश्न ही गलत है। मांग अगर गलत होगी तो आपूर्ति भी सही कहां से होगी। दुनिया के ज़्यादातर लोग अनुयायी इसलिए हैं कि उनका प्रश्न गलत है। उत्तर भी उन्हें सही कभी नही मिलता। इसलिए वे संतुष्ट नहीं हो पाते। जिज्ञासा तो बनी रहती है, मार्ग गलत होता है। इसलिए जब तक तृप्त नही हांेगे, प्रश्न खड़े रहेंगे। जब प्रश्न खत्म हो जाएंगे तो समझ लेना तृप्त हो गए। प्रश्न तृप्त नही करता। उत्तर तृप्त करता है। प्रश्न प्यास जगाता है। उत्तर प्यास बुझाता है। और जब प्यास बुझ जाती है, चिŸा शान्त हो जाता है। जिज्ञासा शान्त हो जाती है। तब भगवान को हम समझ पाते हैं। इसलिए कभी भी ये मत पूछना, भगवान क्या है? सदा पूछना कि भगवान कौन है?

Asli Bajrang Bali kaise The /  असली बजरंग बली कैसे थे ?

हनुमान सीता की खोज में लंका गए। अपनी ताकत, अपने पराक्रम से उन्होंने विषाल समुद्र को लांघा। अर्थात तैर कर पार किया। लंका में जाकर हनुमान सीता की खोज में जगह-जगह भटके। एक तरह से उन्होंने सीता की खोज में पूरी लंका छान मारी। अन्त में जब उन्होंने अषोक वाटिका की चाक-चैबंद सुरक्षा व्यवस्था देखी, तो उन्हें षक हुआ - हो न हो, सीता यहीं बंदी होंगी। हनुमान ने इससे ज्यादा कड़ी सुरक्षा व्यवस्था लंका में किसी भी स्थान की नही देखी थी।

जब हनुमान सीता को खोजते-खोजते उनके पास पहंुचे और बात-चीत का सिलसिला षुरू हुआ, तभी वे सुरक्षा कर्मियों की नजरों में आ गए और तुरन्त घेर लिए गए। सुरक्षा प्रहरियों के साथ हनुमान का जमकर युद्ध हुआ। हनुमान ने सैकड़ों की संख्या में सुरक्षा प्रहरियों को मार गिराया। उनके उत्पात मचाने की खबर जब मेघनाद तक पहुंची तब तक हनुमान रावण के एक पुत्र व उसकी काफी सेना का काम तमाम कर चुके थे। अन्त में जैसे-तैसे मेघनाद द्वारा हनुमान को बंदी बनाकर रावण के दरबार में पेष किया गया, वहां अन्य दरबारियों एवं मंत्रियों के साथ-साथ, रावण के तीसरे भाई विभिशण भी मौजूद थे। लंका में हनुमान द्वारा सैनिकों की मार-काट एवं उत्पात मचाने को लेकर उन पर कारवाई षुरू हुई।

रावण के दरबार में सभी ने हनुमान के लिए अलग-अलग तरह की सजाएं एवं दण्ड देने का प्रस्ताव रखा। लेकिन विभिशण ने रावण की सभा के सारे प्रस्तावों का विरोध किया। उन्होंने हनुमान का पक्ष लेकर उन्हें तुरन्त ससम्मान आज़ाद करने की आवाज़ उठाई। इस पर रावण बहुत नाराज हुआ। उल्टे उसने विभिशण को ही खरी-खोटी सुनाई। तब विभिशण रावण की सभा का बहिश्कार करते हुए हनुमान के पास से गुजरते हुए बोले - हनुमान, निहत्थे होकर भी तुमने वो काम किया है जो रावण की सषस्त्र सेना भी नहीं कर सकी। तुम बहुत बलवान हो। बल षाली हो। आज मैं तुम्हें एक नये नाम से अलंकृत कर रहा हूं- वज्र-अंग- बली। आज से तुम हनुमान के साथ-साथ वज्र अंग बली के नाम से भी जाने जाओगे, क्योंकि तुम्हारे अंग वज्र के समान बल षाली हैं। बस तभी से भगवान राम के प्यारे-दुलारे वज्र अंग बली आज के बजरंग बली बन गए। (षोध एवं प्रस्तुति - चेतना द्वार ट्रस्ट)

Basi Khana /  बासी खाना ?

भगवान बुद्ध के समय की घटना है। एक भिक्षु अन्नदान पाने के लिए एक घर के दरवाजे पर रूका। घर का मुखिया बिम्बिसार एक धनवान व्यक्ति था। जिस वक्त भिक्षु अन्नदान की याचना लेकर उस दरवाजे पर आया, उस वक्त बिम्बिसार सोने के कटोरे में गरम-गरम चावल की खीर खा रहा था। धनवान बिम्बिसार की नव विवाहिता पुत्रवधु विसाखा ने जब अपने ससुर का भिक्षु के प्रति उपेक्षित व्यवहार देखा तो बड़ी शर्मिंदा हुई। उसने भिक्षु को कहा - मेरे ससुर बासी भोजन खा रहे हैं। कृपया आज आप अगले दरवाजे जाएं। अपनी पुत्रवधु विसाखा की ऐसी तीखी बात सुनकर बिम्बिसार के गात में आग लग गई। उसने तुरन्त अपनी पुत्रवधु विसाखा को घर से बेदखल करने की घोषणा कर दी। पंच बुलाए गए। पंचो के सामने विसाखा की बात और ससुर के अपमान दोनो ही बातें रखी गईं। पंचों ने विसाखा से पूछा- बेटी, तुमने अपने ससुर का अपमान करने वाली बात क्यों कही ? विसाखा ने जवाब दिया - इस जन्म में तो मेरे ससुर के कर्म अच्छे नहीं हैं। एक भिक्षु का अपमान करके इन्होंने ये बात साबित कर दी। लेकिन इनके पूर्व जन्म के कर्म जरूर अच्छे रहे होंगे। तभी ये आज धनवान होकर ऐष्वर्य भोग रहे हैं। पिछले जन्मों के कर्मों का फल ये आज खा रहे हैं, इसलिए मैने कहा कि मेरे ससुर बासी भोजन खा रहे हैं। बहु विसाखा की दलील सुनकर सभी पंच बहुत खुष हुए। उधर ससुर बिम्बिसार भी अपने व्यवहार को लेकर षर्मिंदा हुआ। बाद में वे महात्मा बुद्ध के पक्के अनुयायी बन गए।

Sacchi Bhakti /  सच्ची भक्ति ?

एक बार ब्रह्मा जी ने दो व्यक्तियों को बुलाया। पहले से कहा- मैं चाहता हूं, तुम मेरी भक्ति करो। बोलो, कितने पैसे लोगे?
उसने कहा-आप बताऔ, आप क्या दोगें।
अरे भाई, जो बोलोगे दूंगा - ब्रह्मा जी ने कहा।
पांच रूपए - उसने कहा।
ठीक है, दूंगा - ब्रह्मा जी ने कहा। लेकिन भक्ति सही ढंग से करना।
ठीक है। कहकर पहला व्यक्ति चला गया। दूसरे व्यक्ति को ब्रह्मा जी ने बुलाया।
बोलो भाई, तुम कितने पैसे लोगे? - ब्रह्मा जी ने पूछा।
मुझे तो केवल चार रूपए ही दे-देना।
लेकिन भक्ति में कोई कमी न छोड़ना - ब्रह्मा जी ने समझाया।
नहीं नहीं..। भाक्ति बढिया मिलागी आपको - दूसरा व्यकि्त कहकर चला गया।
अगले दिन ब्रह्मा जी के सामने दोनो हाज़िर हुए। ब्रह्मा जी ने पहले वाले व्यक्ति से पूछा - बताओ भाई, कैसा रहा तुम्हारा आज का दिन?
अरे प्रभु, क्या बताऊं ! आज तो मैंने भक्ति-वक्ति कुछ की ही नहीं। बस सारा दिन खेल कूद में ही बीत गया। सोचा था, अब एकान्त में भक्ति करूंगा लेकिन आपने बुला लिया।
ब्रह्मा जी ने कहा - ठीक है जाओ।
अब ब्रह्मा जी ने दूसरे व्यक्ति को बुलाया - हां भाई, कैसा रहा आज का दिन? दूसरे ने कहा - अरे प्रभु, मैं तो सारा दिन आपके नाम की भक्ति ही करता रहा। आप ही का नाम जपता रहा। आप को तो मालूम ही है मैंने अपने सारे काम छोड़ दिए इसके लिए।
ब्रह्मा जी ने पहले वाले भक्त को बुलाया और बोले - तुम अपनी भक्ति ऐसे ही जारी रखना। मैं तुम्हारी भक्ति से यानि सर्विस से बहुत ही खुष हूं।
लेकिन प्रभु, दूसरे ने तो सारा दिन आपकी भक्ति की, फिर भी आपने उसे खारिज़ कर दिया। कुछ समझा नही मैं।
ब्रह्मा जी ने कहा- भक्ति सत्य में बसती है। और सत्य कर्तव्य का पालन करने में बसता है। तुमने सत्य बोला, तो भक्ति हो गई। उसने सत्य को ठुकराया, तो भक्ति गई। इसलिए तुम ही योग्य पात्र हो।